कई बार शादी के बाद पति-पत्नी के रिश्तों में दूरियां आ जाती हैं और बात तलाक या अलगाव तक पहुंच जाती है। ऐसी स्थितियों में गुजाराभत्ता यानी पति द्वारा पत्नी को आर्थिक सहायता देना, कई परिवारों के लिए बड़ा सवाल बन जाता है। गुजाराभत्ता का मकसद यही है कि पत्नी, चाहे वह तलाकशुदा हो या न्यायिक रूप से अलग, अपने जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी कर सके और स्वतंत्र, गरिमापूर्ण जीवन जी सके।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने गुजाराभत्ता से जुड़े मामलों में कुछ बेहद अहम फैसले दिए हैं। इन फैसलों ने साफ कर दिया है कि पत्नी की आर्थिक सुरक्षा पहले है और उसका स्तर जीवन, शादी में मिले मानक के करीब बनाए रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न सिर्फ महिलाओं के लिए बड़ी राहत है, बल्कि कानून व्यवस्था के लिए भी एक मजबूत संदेश है।
अब गुजाराभत्ता देने के कानूनी दिशा-निर्देश और उनका पालन कैसे होगा, किसे कितनी राशि मिलेगी और साथ ही इसमें कौन-सी प्रमुख बातें ध्यान में रखी जाएंगी – इन सबका विस्तार से समझना बेहद जरूरी है।
Supreme Court Decision On Divorce Rules
सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया निर्णय में कहा है कि यदि पत्नी तलाकशुदा है, पुनर्विवाह नहीं किया है और खुद से स्वतंत्र रूप से जीवन यापन कर रही है, तो उसे अपने पति से नियमित रूप से गुजाराभत्ता पाने का अधिकार है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह राशि पत्नी के उस जीवनस्तर के अनुसार तय होनी चाहिए, जो शादी के दौरान उसे मिली थी और जिससे उसकी भविष्य की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
2025 में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पति को आदेश दिया है कि वह अपनी पूर्व पत्नी को प्रति माह 50,000 रुपये गुजाराभत्ता देगा और हर दो साल में इस राशि में 5% की वृद्धि होगी। इसके अलावा, पति को घर के बकाया लोन को चुकाकर उसकी संपत्ति भी पत्नी के नाम ट्रांसफर करनी होगी। यह सब इस कारण किया गया कि पत्नी के पास जीविका का कोई दूसरा साधन नहीं था और पति की आय भी पर्याप्त थी।
कोर्ट द्वारा तय किए गए प्रमुख मानक
सुप्रीम कोर्ट ने गुजाराभत्ता तय करते समय कुछ मुख्य दिशानिर्देश तय किए हैं:
- पत्नी की आर्थिक स्थिति, शिक्षा और कमाई की संभावनाएं देखी जाएंगी।
- पति की आय, सम्पत्ति, खर्च और जिम्मेदारियों का आकलन होगा।
- शादी के दौरान पति और पत्नी जिस जीवनस्तर का आनंद लेते थे, उसे बनाए रखने की कोशिश की जाएगी।
- पत्नी यदि नौकरी करती भी है, तो भी अगर उसकी कमाई पर्याप्त नहीं है, तो उसे गुजाराभत्ता मिलने का अधिकार रहेगा।
जीवन स्तर और भविष्य की ज़रूरतें
कोर्ट का कहना है कि पति की जिम्मेदारी है कि वह अपनी पत्नी को उस स्तर का आर्थिक सहयोग दे, जिससे वह पहले की तरह जीवन बिता सके। मतलब, सिर्फ न्यूनतम जरूरतें नहीं बल्कि उसकी सामाजिक, स्वास्थ्य, आवास व अन्य आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना है। वहीं, अगर पत्नी शादी के बाद भी अकेली, बिना पुनर्विवाह के रह रही है, तो उसकी आर्थिक सुरक्षा का पूरा जिम्मा पति पर होगा।
कुछ परिस्थितियों में बदलाव
- अगर दोनों पति-पत्नी “एक समान” आर्थिक स्थिति में हैं, यानी पत्नी की आय उतनी ही है जितनी पति की, तब कोर्ट गुजाराभत्ता खारिज कर सकता है।
- अगर पत्नी ने खुद बिना वाजिब वजह के पति का घर छोड़ा है, और खुद आर्थिक रूप से सक्षम है, तो भी उसे गुजाराभत्ता नहीं मिल सकता।
मापदंड | विवरण |
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पति की कुल आय | सैलरी, बिजनेस, निवेश आदि |
पत्नी की आय/संपत्ति | कोई आय, जॉब या खुद की संपत्ति |
जीवन स्तर | शादी में मिला स्तर, आराम व सुविधाएं |
जिम्मेदारियां | बच्चों, माता-पिता आदि की जिम्मेदारीयों का बोझ |
भविष्य की जरूरतें | बुढ़ापा, उपचार, सामाजिक दायित्व |
संपत्ति, लोन व अन्य खर्च | घर लोन, मेडिकल खर्च आदि |
प्रक्रिया और लागू नियम
गुजाराभत्ता का अधिकार 1973 में बने क्रिमिनल प्रोसिजर कोड (धारा 125) के तहत तय होता है। इसके अलावा हिंदू विवाह अधिनियम, मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि के तहत भी अलग-अलग समुदायों के लिए व्यवस्था है। कोर्ट अपने विवेक और सामने उपस्थित सबूतों से ही गुजाराभत्ता की राशि तय करती है।
पत्नी और बच्चों की आर्थिक सुरक्षा को कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 – जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार – से भी जोड़ा है, जिसके तहत सम्मान से जीने का हक हर नागरिक को है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पत्नी और बच्चों के दावे, पति के अन्य लेनदारों (जैसे बैंक या अन्य) के दावों से ऊपर रहेंगे, यानी पहले गुजाराभत्ता देना जरूरी है।
छोटा निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देश की सभी महिलाओं के लिए आर्थिक सुरक्षित भविष्य का रास्ता खोलता है। यह न सिर्फ न्यायप्रिय है बल्कि पति-पत्नी के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की बारीकी को भी दर्शाता है। अब पति को यह समझना होगा कि भले वह अलग हो गया हो, लेकिन पत्नी के जीवन की आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक जिम्मेदारी से वह पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता।
छोटे या बड़े स्तर पर अब किसी भी महिला को उनके जीवनस्तर से समझौता करने की जरूरत नहीं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश उनकी गरिमा और मूल अधिकारों की गारंटी देता है।